Criticism and Praise

Criticism and Praise

Both criticism and praise are the necessary tools of improvement and betterment in a thing or in a person. Criticism is an honest opinion about the weak areas and flaws while praise is somewhat exaggerated opinion about strong areas and positive aspects of something or someone.As a balanced person,one must welcome both with equal acceptance.

Criticism

Criticism is good in the sense that it helps in knowing the flaws and weak areas.By knowing this, there is strong possibility of improvemnt and betterment. If a person shows great aversion to criticism, his/her this window of improvement is closed for forever. People avoid to criticise the person who shows the great aversion or feel offended due to criticism
The honest opinion about you and your work is stopped when you are not friendly with your criticism.Its not only good but also very benefical to have a smiling face for criticism because you will get the first hand experience of your criticism before you.Its never possible that someone is always beyond the preview of criticism even God is not beyond and above from this.
People will criticise but after/back of you so its better to have bull by its horn.When criticism reach to someone indirectly it is mixture of many unnecessary and unwanted elements of its medium so it is always better to keep the window of criticism open.In this regard,there is a nice couplet of famous Hindi poet, Kabir:
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय|
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।|

Praise

Just as criticism is a good means of improvement,praise is also a good means of increasing self-belief and confidence. Praise not only improves confidence and self belief but also increases our decision making ability.A person makes perception about himself/herself on the basis of the praise received by him/her. Through praise, a person gets to know his/her strong and good side of personality.
By repeating good and strong points one can mould his/her personality into a perfect one. But every person must keep in mind that praise can misguide also. If one is always hungry for praise and tries to fly in the sky on the basis of false or exaggerated words, then praise can become the reason for anyone’s super-ego and later downfall.

Conclusion

Be it bitter criticism or praise, it is very important to have the capacity of self-analysis. Without the capacity of self-analysis, neither the essence of criticism nor praise will be understood henceforth no benefit will be possible.

आलोचना और प्रशंसा

आलोचना और प्रशंसा दोनों ही किसी वस्तु या व्यक्ति में सुधार और बेहतरी लाने के आवश्यक अंग हैं। आलोचना कमजोर क्षेत्रों और खामियों के बारे में एक ईमानदार राय है जबकि प्रशंसा किसी चीज या व्यक्ति के मजबूत क्षेत्रों और सकारात्मक पहलुओं के बारे में कुछ हद तक अतिरंजित(बढ़ा-चढ़ाकर की गई) राय है। एक संतुलित व्यक्ति तौर,हमें इन दोनों का समान भाव के साथ स्वागत करना चाहिए और स्वीकार कर लेना चाहिए।

आलोचना

आलोचना इस अर्थ में अच्छी है कि इससे खामियों और कमजोर क्षेत्रों को जानने में मदद मिलती है। इसे जानने से सुधार और बेहतरी की प्रबल संभावना होती है। यदि कोई व्यक्ति आलोचना से अत्यधिक घृणा दिखाता है, तो उसके सुधार की यह खिड़की हमेशा के लिए बंद हो जाती है।
लोग उस व्यक्ति की आलोचना करने से बचते हैं जो आलोचना के प्रति अत्यधिक घृणा दिखाता है या आलोचना के कारण आहत महसूस करता है। आपके और आपके काम के बारे में ईमानदार राय तब बंद हो जाती है जब आप अपनी आलोचना के प्रति मित्रवत नहीं होते हैं। आलोचना के प्रति एक मुस्कुराता हुआ चेहरा न केवल अच्छा है बल्कि बहुत फायदेमंद भी है क्योंकि आपको अपनी आलोचना से आपकी खामियों औऱ कमजोर पक्षो से रूबरू होने का अवसर मिल जाता है|
यह कभी भी संभव नहीं है कि कोई हमेशा आलोचना के दायरे से परे हो, यहां तक ​​कि भगवान भी इससे परे या ऊपर नहीं है। लोग आलोचना तो करेंगे, अगर आपके आगे नही तो पीछे , इसलिए यह बेहतर है कि बैल को पूँछ की बजाय सींग से पकड़ा जाएं। जब आलोचना अप्रत्यक्ष रूप से किसी तक पहुँचती है तो यह उसके माध्यम के कई अनावश्यक और अवांछित तत्वों का मिश्रण होती है इसलिए आलोचना की खिड़की को खुला ही रखना बेहतर विकल्प है| इस विषय में कबीर ने बहुत शानदार बात कही है:
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय|
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।|

प्रशंसा

जिस प्रकार से आलोचना सुधार का एक अच्छा साधन है उसी प्रकार प्रसंशा भी मनोबल को बढ़ाने का अच्छा साधन है| प्रसंसा से न केवल मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ता है बल्कि निर्णय लेने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है| कोई भी व्यक्ति अपने बारे में जो धारणा विकसित करता है उसके मूल में उसे प्राप्त हुई प्रसंसा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है
प्रसंसा से व्यक्ति को अपने सबल और अच्छे पक्ष का पता चलता है जिन्हें वह बार बार दोहरा कर अपने व्यक्तित्व को सकारात्मक औऱ सही दिशा की और मोड़ता है|किन्तु किसी भी व्यक्ति को ये जरूर ध्यान रखना चाहिए कि वह केवल प्रसंसा का ही भूखा न हो जाएं और गलत या बढ़ा-चढ़ाकर की गई प्रसंसा के बल पर आसमान में न उड़ने लगे नही तो प्रसंसा किसी के भी अहंकार और बाद में पतन का कारण बन सकती है|

निष्कर्ष

चाहे आलोचना हो या प्रसंसा,इन दोनों को ही आत्मसात करने के लिए स्वविवेक का होना अति-आवश्यक है| बिना स्वविवेक के न तो आलोचना औऱ न ही प्रसंसा का मर्म समझ आयेगा और न उससे होने वाला वांछित लाभ मिल सकेगा|

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